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Friday 16 July 2021
ग्राम्य संवेदना से अटे नवगीतों का संग्रह 'रश्मियों के सारथी'
ग्राम्य संवेदना से अटे नवगीतों का संग्रह 'रश्मियों के सारथी'
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गीत, कविता का वह आदि रूप है, जो अपने उत्स से अब तक मनुष्य के साथ और उसके भीतर भी निरन्तर अपने प्रवहमान रूप में विद्यमान है। जहाँ प्रवाह होता है, वहाँ लय और स्वर-नाद भी होते हैं। चूँकि, गीत मनुष्य के साथ और उसके भीतर विद्यमान काव्य-विधा है, इसलिए गीत में मनुष्य के सुख-दुःख, संत्रास, रिश्ते - नाते, उत्सव, उल्लास, संस्कृति, परिवेश, परम्परा और प्रकृति भी पूरी तरह विद्यमान है। रिश्तों-नातों की बात करें, तो गीत में मनुष्य की प्रकृति, उसका लोक, समाज, बाज़ार, समस्त प्रकार की वैश्विक स्थितियाँ, विचार आदि के साथ उसके सम्बन्ध व इस सब से उपजे प्रभाव भी गीत की विषय वस्तु बनते हैं। इन्हीं विचारों, रिश्तों और प्रभावों के आईने में किसी कविता को परखा भी जा सकता है। इन्ही बातों को इनके वस्तु तत्व के साथ नवगीत में इनके यथार्थ रूप में अभिव्यक्ति मिलती है। चूँकि विजय बागरी 'विजय' अपने सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह को नवगीत संग्रह कहते हैं, तो इसकी कविताओं की पड़ताल भी नवगीत-कविता के निकष पर ही की जाएगी।
'रश्मियों के सारथी' प्रकाशन क्रम में विजय बागरी विजय की पाँचवीं किताब है।इसके पहले उनका प्रथम नवगीत संग्रह 'ओझल हुए उजाले' 2018 में आ चुका है। इस दृष्टि से भी इस संग्रह के गीतों को देखना चाहिए, कि अब वे नवगीत - कविता के संसार में काफी यात्रा कर चुके हैं। नवगीत-कवि एवं संस्कृतिधर्मा आलोचक कुमार रवीन्द्र लिखते हैं - "आज की गीत कविता के दो प्रमुख सरोकार हैं, यानी फिलवक्त की पड़ताल और मनुष्य की अस्मिता की पोषक सांस्कृतिक आस्तिकता को खंडित करते तत्वों की खोज एवं एक सार्वकालिक सामाजिकता तथा मानुषी सात्विकता के सनातन मूल्यों की वर्तमान संदर्भों में पुनर्व्याख्या। परंपरा को नए वक्त अनुरूप परिभाषित करने और उसके संज्ञान को समयानुकूल नए आयाम देने की भूमिका में भी आज का गीत सक्रिय रहा है।
विजय बागरी विजय हमारे समय के ऐसे कवि हैं, जिनके यहाँ कविता में गीति-तत्व अपने सभी अंगों - उपांगों के साथ सुरक्षित है और एक स्वस्थ, सक्रिय भूमिका भी निभा-दिखा रहा है। नवगीत की पहली ही शर्त उसका गीत होना है। इस निकष पर 'रश्मियों के सारथी' के गीत खरे उतरते हैं। दूसरी बात आती है युगबोध की, तो हम इस संग्रह के नवगीतों में हमारे युग में घर, परिवार, पड़ोस, गाँव और इन सबके मध्य बहती स्निग्धता में फैल रहे कटु-कषाय स्वार्थ और भौतिक - सुविधाकांक्षी प्रवृत्तियों का यथार्थ रूप देखते हैं। देखें -
"कहासुनी बढ़ रही आजकल, आपस में दीवारों की।
होड़ लगी है घर आँगन में, तनातनी, तकरारों की।
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रार ठनी है साँकल ताले में केवल अधिकारों की। "
गीत, नवगीत अथवा कविता के किसी भी रूप में चमत्कृत करती प्रयोगधर्मिता के बावजूद, बिम्ब अथवा चित्र का किसी ऐसे अर्थ को संप्रेषित करना आवश्यक है, जिसका सम्बन्ध संदर्भित कविता से अवश्य हो। गीत में छंद और उसकी लावण्यता की रक्षा करते हुए, अपनी बोली के चिरपरिचित शब्दों के साथ एक सुपरिचित दृश्य का बिम्ब रचते हुए कुछ लम्बे होते गीत में हर अन्तरे में इसकी रक्षा कर पाना बड़ी बात है। देखें -
"आँख दिखाती है छानी को टूटी टाँग बड़ेरी /बीच-बीच में ज़हर उगलती छप्पर फाड़ मुड़ेरी /............ नई रसोई चालें चलती, पलटवार, प्रतिकारों की /.......बूढ़ी पगड़ी रोज खरी-खोटी सुनती धिक्कारों की। "
यहाँ वरिष्ठ पीढ़ी के प्रति कनिष्ठ पीढ़ी की अवमानना और अनावश्यक किए जाने वाले प्रतिकार को हम स्पष्ट अनुभव कर सकते हैं । ये पंक्तियाँ कितने ही संदर्भों से जुड़े बिम्ब रचने में सक्षम हैं और इनकी व्यञ्जना बहुत दूर तक जाती है।
विजय बागरी 'विजय' छांदसिकता में सिद्ध हैं।जो इस बात को नहीं जानते, वे भी 'रश्मियों के सारथी' के गीत - नवगीत पढ़ने के बाद यह मानने को विवश हो जाएँगे। इस संग्रह में इन्होंने कई तरह के छंदों का प्रयोग किया है। यद्यपि सभी छंद नवगीत के लिए उपयुक्त नहीं बैठते और जटिल जीवन-यथार्थ को कहने में सभी छंद सक्षम नहीं होते , किन्तु जिस भी छंद में यह संभव हो सकता है, ये उस छंद विधान में रचना करते हैं और उस छंद की सामर्थ्य का पूरा उपयोग करते हैं।
कवि अपने समय का चितेरा होता है। वह जिस परिवेश में रहता है वहाँ हो रहे अवांछित बदलावों, पनपती विकृतियों पर भी उसकी पैनी दृष्टि रहती है। वह उनसे व्यथित भी होता है और चिन्तित भी। ऐसे में इन बदलावों को अनावृत करना कवि की जिम्मेदारी बन जाती है। विजय बागरी विजय जी इस जिम्मेदारी को पूरी तरह अपने गीतों में निभाते दिखते हैं। मानुषी प्रवृत्ति में पसर रहे स्वार्थ, बदलती नीयत को अनावृत करते हुए वे लिखते हैं -
सोच-समझ चिन्तन बारूदी, तोप-तमंचा बोली।
नीयत में नंगी तलवारें, शब्द, शिकारी गोली।
दाँव-पेंच स्वारथ के हिंसक, हुए सभी वनचर।।
मनुष्य जहाँ पैदा होता है और उसका बचपन जहाँ बीतता है, वह घर, गाँव, शहर इस तरह भीतर बसा होता है, कि हम उससे दूर चले जाएँ, तो वह बार-बार हमारे भीतर ही उमगने लगता है, स्मृतियों में छाया रहता है। इतना ही नहीं उसमें हो रहा थोड़ा भी बदलाव हमें असह्य हो जाता है। यह प्रवृत्ति ही नास्टेल्जिया या गृहरति है। इससे बचना मुश्किल काम है।एकबारगी कहने पर लगता है कि जैसे नास्टेल्जिया या गृहरति कोई अवांछित चीज है, किन्तु यह कोई बुरी चीज नहीं है। एक सीमा के भीतर यह हमारे मानुषी भावों की प्रतीक है और जरूरी भी है। विजय बागरी विजय जी का कवि भी गृहरति के गीत रचने से स्वयं को रोक नहीं पाता ।वे विकास के नाम पर धुआँ उगलती चिमनियों, हवा रोकते ऊँचे महलों के अस्तित्व से बेचैन हैं और ऐसे में शीतल हवा से भरी पगडंडियाँ, खेत, घरौंदे,पनघट, बैलगाड़ी, नदी में नहाना आदि सभी कुछ उन्हें याद आता है। वे 'अमराइयों' के गाँव शीर्षक गीत में लिखते हैं -
"याद आते हैं बहुत पगडंडियों के गाँव / कंकरीटों के शहर, सड़कें दहकती भट्ठियाँ / मर गये जंगल सघन,बीमार हैं पुरवाइयाँ /लू-लपट के कारखानों की तरह ऊँचे महल /याद आते हैं बहुत अमराइयों के गाँव।"
विजय बागरी विजय जितना शहर से जुड़े हैं, उससे भी अधिक वे गाँव से जुड़े हैं। गाँव में तो उनकी जड़ें ही नहीं जीवन भी है। इसीलिए उनकी दृष्टि से ग्राम्य संस्कृति और परिवेश में आया छोटा-सा बदलाव भी छिप नहीं पाता। वे घर-गाँव में आपसी सम्बन्धों के, व्यवहार के सिकुड़ते जाने से चिन्तित हैं और उनकी यह चिन्ता वाजिब ही है। वे लिखते हैं -
"भेंट - भलाई हेलमेल का, पान-सुपारी का / बदल रहा परिवेश, आचरण शिष्टाचारी का /घर-घर में बीमार पड़ी हैं, घायल राम जुहारें /मुँह में मिसरी आवभगत की, अंतस से दुत्कारें /बदल रहे संवाद व्याकरण दुनियादारी का /नेह - स्रोत सब सूख रहे हैं, जर्जर बूढ़ी काया /कब तक उल्टी साँसें लेगी, वट-पीपल की छाया /बदल रहा मर्यादा - भूषण प्रेम-पुजारी का। "
दरअसल बागरी जी की कविता का प्रमुख क्षेत्र घर-परिवार, गाँव, नदी, झरने और समूची ग्राम्य सस्कृति ही है। बागरी जी मानुषी आस्तिकता के खण्डित होते जाने और घर-परिवार, गाँव में इसके तेजी से प्रवेश करने के कारण हुए बदलावों को बहुत गहनता से देखते हैं और अपने गीतों में व्यक्त भी करते हैं। देखें -
"कहाँ हिरानी पीपल छइयाँ, पीपल की चौपाल /विधवा - सी लगती है नदिया पनघट खड़े उपासे /सूखे ताल तलैयाँ प्यासी परदेशी चौमासे /अमराई में तनी अटरियाँ खेत खड़े कंगाल। "
यहाँ पेड़ों को काटकर वहाँ बस्तियाँ बसते जाने की पीड़ा को स्पष्ट देखा जा सकता है। जिस तरह खेतों, खलिहानों को समाप्त कर उद्योगों अथवा रहने के लिए कालोनियाँ फैलती जा रही हैं। सड़कों के लिए लाखों पेड़ काट डाले गए और अभी भी काटे जा रहे हैं, इसकी भरपाई असम्भव है। इस अकेली पंक्ति की व्यञ्जना बहुत दूर तक जाती है।
बागरी जी प्रकृति वर्णन बहुत मनोहारी और सौंदर्यधर्मिता के साथ करते हैं। इस संग्रह में उन्होंने ऋतुओं के बहुत सुन्दर और मोहक चित्र उकेरे हैं। 'सूरज को पाती भिजवाई', 'परिवर्तन', 'प्रीति का मौसम', 'चौमासे की सगुन पत्रिका', 'पगुराते दिन', 'कपसीले बादल', आदि ऐसे ही गीत हैं। इन गीतों में मौसम और ऋतुओं को बिल्कुल नये ढ़ंग से चित्रित किया गया है। यह नयापन ही गीतकार को नवगीत के परिसर की ओर लाता है। 'प्रीत का मौसम' गीत में वसंत का वर्णन करते हुए वे उसके प्रभाव को कुछ इस तरह चित्रित करते -
"तान कोयल की प्रभाती कर्णप्रिय सरगम /गीत का मौसम, प्रफुल्लित प्रीति का मौसम /मिल गया अमराइयों को मीत पुष्पाकर /पतझरों की पीर को उपचार का माध्यम /भर रहे नभ में उड़ानें फिर सगुन पाखी।"
160 पृष्ठों और 69 गीतों के इस संग्रह के ज्यादातर गीत आपसी रिश्तों, पारिवारिक और घर-गाँव के रिश्तों के बीच पसर रही कटुता, स्वार्थ, छल - छद्म आदि के चित्र मिलते हैं।कवि इन समस्याओं के मूल में भारतीय समाज में तेजी से बढ़ रहे पाश्चात्य संस्कृति के दुष्प्रभाव को पाता है। - वे 'रूठ गए' शीर्षक गीत में लिखते भी है -
"नेह-निबंधन टूट गए, संबोधन रूठ गए सामाजिक संबंधों के, आलंबन रूठ गए /साँझे चूल्हों के बँटवारे, धुँधुवाती रातें /दरवाजों पर कील ठोंकतीं, रोज भितरघातें /हेल-मेल त्यौहारों के, सम्मेलन रूठ गये / सच्चाई का घोंट रहा दम, छलछंदी मौसम / पछुआ के घर में गिरवी हैं, नजरें लाज शरम / रामजुहारें, कुशलक्षेम, अभिवादन रूठ गए। "
विजय बागरी जी के यहाँ कड़वे फिलवक्त की पड़ताल करते गीत भी हैं। देखें -
" चोर-सिपाही साथ बैठकर, करते रोज जुगाली।
खुल्लमखुल्ला पटवारी का, खसरा करे दलाली।
हँसिया और कुदारी के घर ठनी भूख हड़ताल। "
बागरी जी बहुत कुछ बदल जाने और बदलते चले जाने पर भी उम्मीद की डोर नहीं छोड़ते। वे कहते भी हैं, कि स्थितियाँ चाहे जितनी बदल जाएँ, किन्तु मनुष्य के आपसी रिश्ते, उत्सव, उल्लास नहीं बदलें और यह एक आश्वस्ति देने वाली बात है।
" बदला मौसम किन्तु हृदय के तार नहीं बदले /अधरों से मधुगीतों के गुंजार न बदले /खेतों की मेड़ें महुआ की, गंध लुटाती हैं /रजनीगंधा की साँसें, सौरभ छलकाती हैं /फसलों के त्यौहार, मंगलाचार नहीं बदले।"
भाषा के स्तर पर विजय बागरी विजय जी बहुत समृद्ध कवि हैं। इनके यहाँ जितना वैभवशाली संसार लोकभाषा का मिलता है, उतना ही समृद्ध संसार तत्सम प्रधान प्रांजल भाषा का भी है। लोकभाषा में भी बागरी जी देशज शब्दों के साथ बोली के स्थानीय रूपों का भी उचित और काफी-कुछ प्रयोग करते हैं। ये शब्दरूपों, मुहावरों, लोकोक्तियों आदि का अपने गीतों - नवगीतों में अर्थगर्भी प्रयोग करते हैं। चेतना की भोर के हर्षाने के आकांक्षी विजय बागरी जी छलछंद मुखौटे, चापलूसियों के जबड़े, कुण्ठाओं के दिन, कटुता की खाई, उम्मीदों को धुआँ दिखाते दिन, महुआ की वासंती चितवन, चुम्बन की चाहत में अधरों की साँकल को खटकाना, मुँहजोर झरोखा, नई रसोई, बूढ़ी पगड़ी, सन्नाटों की चादर, दृष्टि अघोरी, पगुराते पंच, कुहरा सरपंच, हकलाते दिन, रात परशुराम, प्रीति का पुष्कर, प्रत्यूष पारायण, क्रुद्ध समय का दुर्वासा, कष्ट-कथानक, आदि बहुत सारे अर्थगर्भी और व्यञ्जना भरे शब्द समूहों की सृष्टि करते हैं। यह उनका विशिष्ट कौशल है। इसके साथ ही सीमित ही सही, किन्तु उपयुक्त मिथकों का प्रयोग भी किया गया है।
एक विकट समय में, बढ़ते सांस्कृतिक संकट और स्वार्थ से भरती जा रहीं बदलती मानुषी वृत्तियों, सत्ता के अंगों द्वारा फैले भ्रष्टाचार के बावजूद विजय बागरी विजय जी का कवि इन सब विडम्बना भरी स्थितियों से पार पाने के लिए उद्घोष करता है -
"लक्ष्य पर संधान करने का समय है /थामकर गांडीव प्रत्यञ्चा चढ़ाओ /युद्ध काली रात से करना पड़ेगा /रोशनी का द्वार मिलकर खटखटाओ /एक दिन विद्वेष की लंका जलेगी /धड़कनों में प्यार की गंगा बहेगी /पारिजाती प्रीति का परिमल लुटाओ / जिन्दगी के गीत गाओ मुस्कुराओ।"
विजय बागरी विजय जी पारम्परिक छांदस काव्य सृजन में कुशल हैं। बागरी जी के गीतों के विषय प्रायः ग्रामीण स्त्री का रूप सौंदर्य, उसकी भाव भंगिमाएँ, भारतीय गाँवों के भीतर और बाहर फैला प्राकृतिक सौंदर्य, ऋतु सौंदर्य व उसका प्रभाव भी बनता है। ये ऐसे विषय हैं, जिन पर गीत कवियों द्वारा खूब लिखा गया है और अब भी लिखा जा रहा है। इन विषयों पर नवगीत कविता रचते हुए अतिरिक्त सावधानी की आवश्यकता होती है, क्योंकि गीत और नवगीत के मध्य की रेखा बहुत मोटी नहीं होती। ऐसे में कवि का दृष्टिकोण ही कविता को नवगीत के परिसर में ला पाता है। दूसरी बात यह भी, कि चमत्कृत करते छंद सौंदर्य के मोह में रचनाकार को किसी नवगीत में ऐसे अंतरे को शामिल करने से बचना चाहिए, जिसमें आधुनिक भाव-बोध, अंतरे का अर्थ - बोध और संदर्भित गीत के शेष अंश से उसकी सम्बद्धता स्पष्ट न हो पा रही हो। कई बार हम ऐसे अंतरे को उसके नाद सौंदर्य, आनुप्रासिक सौंदर्य, ग्राम्य संवेदना के शब्दों आदि के मोह में उसे वहाँ से अलग नहीं कर पाते। इस मोह को छोड़ना जरूरी है। जब भी कोई रचनाकर यह कर पाता है, तो उसकी कविता बहुत दूर तक जाती है। एक विशेष बात यह भी, कि जब भी हम किसी कविता - संग्रह को किसी विशेष तरह की कविता का नाम देते हैं, तो फिर उसमें सभी कविताएँ उस विशेष फार्म की ही शामिल करनी चाहिए। ऐसा इसलिए आवश्यक है, कि आने वाली पीढ़ी इन्हें उदाहरण मानकर सृजन करती है, तो बहुत गड़बड़ी होने की संभावना बढ़ जाती है। तो, नवगीत संग्रह हो तो फिर उसमें सारे नवगीत ही शामिल करना चाहिए। अन्यथा हम 'गीत - नवगीत संग्रह' भी नाम दे सकते हैं। ऐसा बहुत लोग कर भी रहे हैं। यद्यपि यह भी बचाव का और भ्रम पैदा करने वाला रास्ता है, किन्तु एक विकल्प तो है ही।
'रश्मियों के सारथी' को अपनी छांदसिकता, प्रवाह, भारतीय संस्कृति, लोक की मुहावरेदार भाषा, मानुषी संवेदना से जुड़े कथ्य व कहन की विशिष्टता वाले गीतों और नवगीतों के लिये पाठक अवश्य याद रखेंगे। यह संग्रह अवश्य ही विजय बागरी जी की कीर्ति बढ़ाने वाला होगा और पाठकों, काव्य मनीषियों और विधागत विद्वानों द्वारा भी भरपूर प्रतिसाद पा सकेगा।
शुभकामनाओं के साथ
राजा अवस्थी
कटनी
दिनांक - 24/03/2021
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